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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक


पिछले साल 3812 लोग खून हो गए; 559 बलात्कार के वारदात हुए; 227 लोगों पर एसिड फेंका गया। यह 25 दिसंबर तक का हिसाब है। साल के बाकी पाँच दिनों में यह तादाद ज़रूर और बढ़ गई होगी। देश किस हाल में है, यह संख्या देखकर, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जो वंगलादेशी, देश के बाहर जा बसे हैं, यह संख्या देखकर ज़रूर सिहर उठेंगे। जिन लोगों ने पक्की तौर पर देश के बाहर जाने की बात नहीं सोची, अब उन लोगों ने सोचना शुरू कर दिया है। जो लोग देश में रहते हैं, उन लोगों के लिए शायद यह दाल-भात है। खून की संख्या, दुर्घटना में मृत्यु-संख्या, फतवों की वजह से आत्महत्या की संख्या, सन् 2000 के मुकाबले सन् 2001 में कम है। इसलिए यह सोचकर राहत की साँस ली जा सकती है कि देश की हालत में तरक्की हुई है। वाकई, राहत की ही बात है। मुझे बाघ ने खाया, सियार ने खाया है। चलो, कोई बात नहीं। बाघ के नुकीले, धारदार दाँतों से तो बच गए-यह काफी कुछ उस तरह की राहत है।

ऐसी असुरक्षा दुनिया के अन्य किसी देश में है भला? नहीं है! दुनिया में कहीं भी किसी युद्ध या महामारी के अलावा ऐसा नहीं घटता। बंगलादेश में कोई स्वस्थ-सबल इंसान, सुवह नींद से जागता है, दिन शुरू करता है, लेकिन उसे क्या ख़बर है कि उस दिन वह जिंदा रहेगा? नहीं, उसे ख़बर नहीं है, क्योंकि जीवन की कोई सुरक्षा नहीं है। घर से बाहर निकलते ही, सड़क-दुर्घटना में उसकी मौत हो सकती है। कोई अचानक उसका खून कर सकता है। अगर वह औरत है, तो सड़क दुर्घटना या अचानक खून होने के अलावा, उसके साथ और भी किसी तरह का हादसा हो सकता है। कोई उसका बलात्कार कर सकता है; बलात्कार के बाद, उसका कत्ल कर सकता है; उसके चेहरे पर एसिड फेंक सकता है; एसिड से उसकी मौत हो सकती है। अगर वह नाबालिग शिशु है, तो उसके लिए भी ख़तरा है। यह तो हुई घर-बाहर की घटना! घर के अंदर बैठे रहो, तो मुमकिन है सड़क दुघर्टना से बचा जा सके, लेकिन खून से नहीं. एसिड से भी नहीं: बलात्कार से भी नहीं, फतवों से भी नहीं: अपमान. अवहेलना. आत्महत्या तक से भी नहीं।

559 बलात्कार की घटनाएँ हुईं। इसका मतलब यह हुआ कि 559 औरतों का वलात्कार किया गया है। बंगलादेश में किसी मर्द का बलात्कार नहीं किया जाता, कोई बालक भी बलात्कार का शिकार नहीं होता। वैसे पश्चिमी देशों में ऐसा होता है। लेकिन वहाँ मर्द ही, मर्द का बलात्कार करता है। यह सुनकर बहुत से लोग नौज़विल्लाह कहेंगे। मुमकिन है, वे लोग बड़े फन से कहेंगे कि हमारा देश अभी इतने रसातल में नहीं गया, हम अभी भी सिर्फ औरत का बलात्कार करते हैं! वाकई यह बड़े फन की बात है? बलात्कार की शिकार 559 औरतों में 269 शिशु भी शामिल हैं। इस बात पर बहुत से लोग मंतव्य देंगे-हमलोग किसी की माँ या बीवी का बलात्कार करने में ज़रा झिझकते हैं, इसलिए अबोध शिशुओं का बलात्कार करते हैं। 559 बलात्कारों में सामूहिक बलात्कार की घटना ही 309 हैं। गणतंत्र के देश में गण-बलात्कार नहीं घटेगा, तो और क्या घटेगा? सामूहिक मृत्यु-दर, सामूहिक कब्र, सामूहिक बलात्कार-यह सब न हो, तो गणतंत्र कैसे टिका रहेगा? बीच-बीच में मुट्ठी भर लोग सामूहिक आंदोलन ज़रूर करते हैं, कोई-कोई समूह संगीत का भी आयोजन करते हैं। यह सब देखकर गद्दी पर आसीन जन-नेतावृन्द अपनी मूंछों तले मुस्कराते रहते हैं और सामूहिक घुलैया देने के लिए मुट्ठीभर पठान गुंडे भेजते हैं। यही है मेरा देश! यही तो है बलात्कार की शिकार, मेरी मातृभूमि! मेरा बंगलादेश!

दरअसल यह किसी औरत का बलात्कार करना नहीं है। यह अपने देश का बलात्कार करना है। बहुतों के लिए यह भी काफी गर्व की वजह है। वे लोग अपने ही देश का बलात्कार कर रहे हैं, किसी अन्य देश का तो नहीं! अगर वे लोग खून भी करते हैं, तो अपने भाई का करते हैं; फतवा देते हैं, तो अपनी ही बहन को देते हैं। वाकई, बंगालियों के गर्व की सीमा नहीं है। एक-एक जन, विशाल देशप्रेमी! वे लोग देशप्रेम में इस कदर अंधे और मत्त हैं कि देश का बलात्कार किए बिना, उनकी देह शीतल नहीं होती।

दूर से, अपने देश को देखती हूँ, उतना ही अवाक् होती हूँ! दूर से देखती हूँ, शायद इसीलिएं अवाक् होती हूँ। अगर मैं देश में होती, तो ये सारे बलात्कार, सारे खून, सारी दुर्घटनाएँ मुझे भी दाल-भात जैसी लगतीं। वैसे मैं यह भी जानती हूँ कि अगर मैं देश में होती, तो अब तक क़त्ल हो गई होती या बलात्कार की शिकार हो जाती या फिर सड़क-दुर्घटना में मेरी मौत हो चुकी होती। देश में जिंदगी की रत्तीभर हिफ़ाज़त नहीं है! लोग-बाग अल्लाह पर भरोसा करते हैं, इसलिए सड़कों पर उतरते हैं। अल्लाह पर विश्वास करते हैं, इसलिए माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं। अल्लाह के भरोसे ही लोग-बाग ट्रेनों में सवार होते हैं। अंत में अल्लाह का अगर आसरा-भरोसा न हो, तो अल्लाह की भी चीज़, अल्लाह वापस ले लेते हैं या अगर हयात ही नहीं बची, तो बचोगे कैसे? या यही तकदीर में बदा है, यह कहकर सारी दुर्घटनाएँ, इंसान कबूल कर लेता है। किसी बात की कोई निश्चयता नहीं है; जिंदा रहने की भी निश्चयता नहीं है। कदम-कदम पर मौत; रोम-रोम में आशंका! ऐसी सुरक्षाहीनता में इंसान भला कैसे जिंदगी गुज़ारे?

इंसान के हिस्से में कुल्लमकुल एक ही तो जीवन होता है। जीवन से बढ़कर अनमोल और क्या है? इस जीवन के लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है-सुरक्षा! देश उस सुरक्षा का इंतज़ाम करता है। नागरिक के लिए रोटी-कपड़ा-मकान का इंतज़ाम करता है। शिकार की व्यवस्था करता है! चिकित्सा की व्यवस्था करता है। बदले में नागरिकों की दक्षता को राष्ट्र और समाज के कामों में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे ही तो चलता है, कोई राष्ट्र! एक देश! लेकिन बंगलादेश क्या चल रहा है? नहीं चल रहा है! किसी भी राष्ट्र की नज़र में सभी नागरिकों का बराबरी का हक़ है। किसी के लिए ज्यादा अधिकार किसी के लिए कम नहीं है, हालांकि इस देश में किसी को खाना नसीब होता है, किसी को नहीं! किसी को शिक्षा का मौका मिलता है, किसी को नहीं! शिक्षा मिल भी जाए, तो काम नहीं है! काम भी है, तो तनख्वाह नहीं है; तनख्वाह भी जुटे, तो खाने-पहनने के लिए नाकाफी है! बंगलादेश में सबसे ज्यादा मुनाफे का धंधा है-राजनीति! राजनीति के बारे में कुछ भी न जानता हो, मगर वह राजनीतिज्ञ हो जाता है। चुनाव में रुपए ढालो, समूचे साल मुनाफा लूटो! सीधा-सा हिसाब है। इस धंधे में किसी बुद्धि-शुद्धि या विलक्षणता की ज़रूरत नहीं पड़ती। अनपढ़ गृहवधू एकदम से प्रधानमंत्री हो जाती है, दक्ष राजनीतिज्ञों को रिक्शावाला बन जाना पड़ता है। चोर अर्थमंत्री बन बैठता है! क अक्षर भी जिसके लिए गोमांस है, वह शिक्षा मंत्री हो जाता है। चिकित्सक झाड़-फूंक में विश्वास करते हैं। गृहमंत्री संत्रासी हो जाता है! मेरा तो ख्याल है कि नागरिक अधिकार के बारे में भी देश के कर्ता-धर्ताओं को अंदाज़ा तक नहीं है। जो लोग चुनाव जीत लेते हैं, उन्हें भी अपनी जिम्मेदारियों की कोई जानकारी नहीं है। मैं पूछती हूँ, वे लोग जनगण के लिए हैं या जनगण उनके लिए है? बंगलादेश के राजनीतिक मंच पर तथाकथित निर्वाचन नामक प्रहसन में जो घटना घटती है, इसमें वोट जीतने का मतलब है, दहशतगर्दी का लाइसेंस जीतना। वे लोग नाम से रक्षक होते हैं, काम से भक्षक! वे लोग भोग करते हैं, जन-गण भोगते हैं! वे लोग मनमानी करते हैं। बीमार पड़ने पर, वे लोग इलाज के लिए विदेश जाते हैं, जबकि देश के सरकारी अस्पतालों के फर्श पर लेटे-लेटे, देशवासी, बिना इलाज, बिना दवा के दम तोड़ते रहते हैं। वे लोग अपने बेटे-बेटियों को लिखने-पढ़ने के लिए विदेशों के स्कूल-कॉलेज में भेजते हैं, जबकि देश के अधिकांश लड़के-लड़कियाँ शिक्षा के मौके तक से वंचित होते हैं। देश के चंद लोगों के हाथ में अथाह रुपए होते हैं। कुछ लोगों की थालियों में मांस-मछली, कुछ लोगों के बदन पर बेशकीमती कपड़े ! कुछ लोगों की तकदीर में घर-मकान नहीं, अट्टालिका होती हैं। कुछ लोग चमचमाती गाड़ी में सवार होकर घूमते-फिरते हैं, अधिकांश लोग अभाव, बीमारी भोगते हैं। अधिकांश के बदन पर फटे-चीथड़े कपड़े; अधिकांश की थालियों में खाना नहीं होता; अधिकांश लोग बेघर होते हैं। अधिकांश लोगों ने कभी किसी दिन सुख-आराम का मुँह नहीं देखा। अधिकांश के पास शिक्षा नहीं होती, इलाज नहीं होता; अधिकांश लोगों के जीवन में सुरक्षा नहीं होती। इस अति-धनी और अति-दरिद्र के बीच में जो लोग रहते हैं, वे लोग दौलत के पीछे दमफूली दौड़ लगाते हैं; गिरते-पड़ते, बेतहाशा इज़्ज़त के पीछे दौड़ते; अपनी लोलुप जुबान से क्षमता के तलवे चाटते हैं। यही तो है मेरा देश! ऐसा देश तुम्हें खोजने पर भी नहीं मिलेगा-'सकल देश में सर्वोत्तम जो, वह है मेरी जन्मभूमि!' असल में ऐसा देश, दुनिया भर में खोजने से भी नहीं मिलेगा। खून, राहजनी, बलात्कार, दुर्नीति में श्रेष्ठ देश है! हिंसा, द्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध, लोभ, स्वार्थ, क्षुद्रता-नीचता में अग्रणी यह देश; बलात्कार का शिकार, बंगलादेश!

देश को आज़ाद हुए तीस साल गुज़र गए। आज भी लोगों को स्वीधनता की चेतना के बारे में चीखना-चिल्लाना पड़ता है! स्वाधीनता की व्यर्थता तो यहीं जाहिर है। जो लोग आज़ादी के खिलाफ थे, उन लोगों को मुक्ति युद्ध का टनाटन इतिहास, लूंस-ठूसकर खिलाने पर भी, उन लोगों की चेतना नहीं लौटेगी। देश चेतनाहीन अँधेरे में मुँह के बल गिरा पड़ा है। अब अतीत में क्या झाँकना? अगर सामने की तरफ न देखा, अगर भविष्य न गढ़ा, राजनीति-अर्थनीति में नीति न लाए, स्वस्थ तरीके से इंसान के जीने का इंतज़ाम न किया, इंसान को सुख-चैन न दिया, न्यूनतम सुरक्षा नहीं दी, तो देश सड़ी-गली फूली हुई लाश की तरह बस पड़ा रहेगा। इसे कोई चील सियार भी नहीं खाएंगे। देश पाकिस्तान झपट ले। भारत खा जाए या चील-कौए खा जाएँ। इस अभागे देश को कोई नहीं लेगा। भविष्य में तो यूँ भी यह देश भूकम्प में फँस जाएगा, बाढ़ में गर्क हो जाएगा। इंसान कोई तिलचट्टा तो है नहीं, जो सैकड़ों मुसीबत में भी टिका रहेगा।

देश सिर्फ मिट्टी से ही नहीं रचा-गढ़ा जाता, बल्कि इंसानों से गढ़ा जाता है। इंसान के लिए अगर इंसान का प्यार, ममता, श्रद्धा, स्नेह न हो, तो सुंदर-स्वस्थ देश गढ़ना नामुमकिन है! इंसान का खून-कत्ल करके, बलात्कार करके, अत्याचार करके। इंसान को धोखा देकर इंसान का घर-द्वार फूंककर। उस पर पत्थर बरसाकर, दुर्रे मारकर, एसिड फेंककर, भले धर्मांधता, अंधता, क्षमता, क्षुद्रता की जय हो, देश को कोई लाभ नहीं होता। उत्तरी यूरोप के जिस देश में रह रही हूँ, उस देश में अगर सड़क-किनारे, कोई बस, हल्के से भी एक तरफ झुक पड़े, तो भले किसी यात्री की मौत न हो, बस टेढ़ी होने की ख़बर, राष्ट्रीय खबर बन जाती है। बस टेढ़ी क्यों हुई? टेढ़ी होनी तो नहीं चाहिए थी, हज़ारों तरह की खोज-बीन शुरू हो जाती है, यात्रियों में से किसी एक भी यात्री के मन में अगर हल्का-सा भी आघात लगता है, तो सरकारी खर्च पर उसका इलाज किया जाता है! समस्या की जड़ तक जाकर समाधान किया जाता है। इस देश में बच्चे के जन्म लेने से पहले ही, देश उसके लालन-पालन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है! गर्भवती माँ पर होनेवाला सारा खर्च देश के जिम्मे! बच्चे के जन्म के बाद, उसके खाने-पहनने का सारा खर्च, राष्ट्र वहन करता है! उसकी शिक्षा-दीक्षा, इलाज का सारा ख़र्च देश के जिम्मे ! यह इंतजाम हर नागरिक के लिए है। बेटे-बेटी के व्याह के लिए, बुढ़ापे में खाने-पहनने जीने के लिए, भविष्य के लिए, किसी को भी रुपए-पैसे जमा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। सारा ख़र्च राष्ट्र ही वहन करता है। इस देश में ऊपरी कमाई की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। बंगलादेश में रुपए संचय करना ज़रूरी होता है, इसलिए लोग दुर्नीति और बेईमानी का आश्रय लेते हैं। यही नहीं वे लोग खून भी करते हैं, बलात्कार करते हैं, एसिड फेंकते हैं-यह सब क्यों करते हैं? सबसे पहले यह देखा जाए कि बंगलादेश में बच्चे बड़े कैसे होते हैं। इस देश में बच्चे जैसे बड़े होते हैं, बंगलादेश में वैसा नहीं होता।

पीट-पीटकर लाश बनाना. मारकर तख्ता बनाना. चंटी मारकर दाँत तोड डालना. मारे धुलैया के हाड़-गोड़ पाउडर बना देना, छील-काटकर नून भुरक देना, मार-मार कर, टुकड़े-टुकड़े कुत्ते को खिला देना-ऐसे-ऐसे जुमले जन्म से सुनते-सुनते ही, बच्चा बड़ा होता है। मेरे अब्बू की नीति थी, पिटैया न दी जाए, तो बाल-बच्चे इंसान नहीं बनते। हम सबको अब्बू ने बेभाव पीटा है! सवाल लगाने या वर्तनी की हल्की-सी भूल पर, स्कूल के टीचर बेभाव पीटते थे। घर में भी माट'साब के थप्पड़ तमाचे, घूसे-मुक्के तो खैर बरसते ही थे, पीठ पर पेड़ों की डालें तक टूटती रहती थीं। यहाँ इस देश में बच्चों को पढ़ाने के सैकड़ों तरीके हैं। ये सारे तरीके ही, बच्चों को सिखाने के लिए होते हैं! शिशु-विशेषज्ञों द्वारा साल-दर-साल गवेषणा कराते हुए, बच्चों को तैयार किया जाता है। इस देश के शिक्षक-शिक्षिकाएँ किसी विद्यार्थी को रोकना-टोकना तो दूर की बात, धमकी तक नहीं देते। ऐसी हरकतें यहाँ गलत और कानून-खिलाफ समझी जाती हैं। यहाँ तक कि बच्चे के माँ-बाप भी अगर अपने बच्चों पर हल्का-सा हाथ भी उठाते हैं, तो पुलिस आकर, उन्हें गिरफ्तार कर लेती है.। माँ-बाप को जेल या हाजत में ठूसकर बच्चों को कैसे इंसान बनाया जाता है, यह सिखाने-पढ़ाने के बाद ही, उन्हें दुबारा घर भेज दिया जाता है। इसका भी अगर कोई असर नहीं होता, तो बच्चों को ही, माँ-बाप के चंगुल से निकालकर, उठा ले जाते हैं। और उसे सरकारी घर के स्वस्थ परिवेश में रखकर इंसान बनाते हैं। यहाँ बच्चे अपनी आँखों के सामने मुर्गी-जिबह, गाय-जिबह देखते हुए, बड़े नहीं होते। लेकिन बंगलादेश में ऐसा होता है। कुर्बानी के ईद के दिन गाय की बलि का निर्मम उत्सव। देख-देखकर बड़े होते हुए बच्चों के लिए इंसान का गला काटना, कोई रोमहर्षक घटना नहीं होती। बड़े होने के बाद ये ही बच्चे, इस-उस का गला काट सकते हैं। खिलौने का पिस्तौल खेलते-खेलते, इधर-उधर निशाना लगाकर गोलियाँ छोड़ते-छोड़ते, बड़े होने वाले शिशु, जवान होने के बाद, असली पिस्तौल हाथ में लेने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। निशाना लगाने में भी उनसे चूक नहीं होती। चूक होनी भी नहीं चाहिए।

कुछ सालों पहले इस देश में एक लेखिका के यहाँ मेरी दावत थी। उस लेखिका ने अपने और-और दोस्तों को भी आमंत्रित किया था। जब मैं वहाँ दावत पर पहुँची, मेरे साथ सुरक्षा-पुलिस भी थी। जब मेरी बुलेटप्रूफ गाड़ी उस लेखिका के घर के सामने रुकी, ठीक उसी वक्त मामूली-सी एक सायकिल पर सवार एक महिला भी वहाँ आ रुकी। सायकिल को सड़क पर ही टिकाकर वह महिला भी लेखिका के घर में दाखिल हुईं। मैं भी! घर में मौजूद बाकी मेहमान से जान-पहचान होने के दौरान, उस सायकिल-सवार महिला से भी परिचय हुआ। वे इस देश की विचारमंत्री थीं। बंगलादेश से सद्यः आई मैं, हैरत से मुँह-बाए सुनती रही।

मैंने कहा, 'मैं आई पुलिस की गाड़ी में, पुलिस से घिरी हुई! और आप आई हैं सायकिल चलाकर? पुलिस-गाड़ी में तो आपको आना चाहिए था।'

मेरी बात सुनकर, विचार-मंत्री अवाक रह गईं।

उनकी आँखें आसमान पर जा चढ़ीं, 'आप क्या बात करती हैं? आपको सुरक्षा की कमी है, आपको पुलिस की ज़रूरत है! मुझे पुलिस की ज़रूरत क्यों पड़ेगी? मुझे तो किसी ने फतवा दिया नहीं।'

किसी ज़माने में यह देश निहायत गरीब था। भारतवर्ष जब धन-मान, शिक्षा-संस्कृति में उच्च स्थान पर था, इस देश के लोग अशिक्षा, अभाव से जर्जर थे। इस देश की माटी तले, पानी तले, न तो कोई गैस है, न तेल; न हीरा, न सोना! इसके बावजूद यह देश अब दुनिया के अन्यतम धनी देशों में गिना जाता है। यहाँ किसी को रोटी-कपड़ा-मकान का अभाव नहीं है; शिक्षा और इलाज की भी कमी नहीं है। इस देश में सबके पास घर-मकान गाड़ी है। सभी संपन्न हैं। सबके जीवन में सुरक्षा है! यह देश गढ़ने के पीछे, इस देश के लोगों में एक चीज़ सर्वाधिक काम करती है, वह है-सच्चाई और ईमानदारी!

मुझे यह भरोसा करने का मन होता है कि बंगलादेश के सभी लोगों के मन में अभी भी सच्चाई और ईमानदारी जिंदा है, अभी तक उसने निर्वासन नहीं लिया। अभी ही अगर चाहें, तो देश को स्वस्थ और सुरक्षित बनाया जा सकता है। कत्लखून, बलात्कार, एसिड, फतवा-यह सब अस्वस्थ समाज के लक्षण हैं। समाज को स्वस्थ बनाने से ये सारे उपसर्ग दूर हो जाते हैं। किसी उग्रवादी या खूनी को गिरफ्तार करा देने पर, लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की जा सकती है, खूनी जब पकड़ा जाता है, तो उसे फाँसी पर भी झुलाया जा सकता है लेकिन इस ढंग से खूनी या उग्रवादी या बलात्कारियों की संख्या कम नहीं की जा सकती। खून या बलात्कार क्यों होता है? चोरी, दुर्नीति, डकैती क्यों होती है, जो लोग ये वारदातें करते हैं, क्यों करते हैं-यह सब जानना-समझना होगा। उसके बाद इनके कारणों को निर्मूल करना होगा। इंसान को शिक्षित बनाना होगा, सुशिक्षा फैलाना होगा। मैं जिस शिक्षा की बात कर रही हूँ, वह शिक्षा सिर्फ नाम दस्तखत करने की शिक्षा नहीं है या मकतब-मदरसे में जाकर, झूम-झूमकर अरबी पढ़ना नहीं है। मदरसे की शिक्षा जिस तरह देश की अर्थनीति को नुकसान पहुंचाती है, समाज और राष्ट्र को भी धमकियों तले रखती है, क्योंकि मदरसे तो ताज़ा-ताज़ा कट्टरवाद तैयार करने के कारखाने होते हैं। कट्टरवाद देश को मध्ययग के अँधेरे में धकेल देता है। वह सामने की तरफ नहीं बढाता अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानों का समाज, किसी अर्थ में भी स्वस्थ समाज नहीं था। ये तालिबान मदरसे से शिक्षा लेकर आए थे। मैं जिस देश में रहती हूँ, यहाँ धर्म के साथ राष्ट्र का कोई सरोकार नहीं है। इसलिए यह देश इतना उन्नत है। दुनिया में ऐसा कोई भी देश नहीं है, जो धर्म के साथ जुड़ा है और वहाँ अन्याय, अत्याचार, दुर्नीति, बदहाली न हो। धर्म को व्यक्तिगत रखकर, राष्ट्र अपना काम करेगा। राष्ट्र को तो दोजख में जाने की फिक्र नहीं होती? या होती है? हमारे निजामी, शयखल हादिस, गुलाम आयम जैसे लोगों को बहिश्त जाने का चाव है। वे लोग बहिश्त जाएँ। लेकिन पूरे देश के लोगों को साथ लेकर, वह जन्नत क्यों जाना चाहते हैं? वे लोग इतने तो निःस्वार्थ नहीं हैं। व्यक्तिगत जीवन में ऐसा कोई महान या ईमानदार काम उन लोगों ने नहीं किया है। कोई अगर अल्लाह का हुक्म न माने, तो वह दोज़ख में जाएगा, लेकिन इससे निजामी जैसे लोगों का बहिश्त तो हराम नहीं होगा। वे लोग अनायास ही बहिश्त में सुख-शांति से जिंदगी गुज़ार सकेंगे। अल्लाह तो पूरे देश को पुलसेरात पर एक साथ चलाएँगे नहीं। वहाँ तो एक-एक बंदे को अकेले-अकेले ही चलना होगा, उस वक्त माँ-बाप, भाई-बहन कोई भी अपना नहीं होगा। सभी या नबसी! या नबसी करेंगे। निजामी लोग अभी से ही वह या नबसी शुरू कर सकते हैं। मेरा मतलब है कि दूसरों के चर्खे और राष्ट्र के चर्खे में मैं तेल न ढाल कर, उन लोगों को अपने चर्खे में तेल ढालना चाहिए। दूसरे लोग क्या खाएँगे। क्या पहनेंगे, कैसे चलेंगे-फिरेंगे, क्या पढ़ेंगे, क्या बोलेंगे, कितना बोलेंगे। कहाँ जाएँगे, कहाँ नहीं जाएँगे, यह सब तय करने की जिम्मेदारी ये निजामी लोग अपने हाथ में लेना चाहते हैं। ये निजामी और उसकी परिषद अगर वोट में जीत गए और यह सब तय करने की जिम्मेदारी, अंत में उन लोगों ने हथिया ली, तो देश का सामूहिक सर्वनाश निश्चित है। यह सर्वनाश रोकना आसान नहीं है। इंसान के अंदर सच्चाई और ईमानारी चूंकि अभी तक बची हुई है। अगर वह सब भी तबाही के चंगुल में पड़ गईं तो उसकी धूल भर ही हवा में नहीं उड़ेगी, जन्म-जन्मांतरों के लिए निश्चिन्ह हो जाएगी।

सुनो, बलात्कार के शिकार बंगलादेश, अभी भी समय है! बचो!





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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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